19 जुलाई ताप्ती जयंती पर विशेष –
वह शहर हमारा मुलताई है-
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कहते है इस शहर में कभी कोई भूखा नही सोता.. इस शहर में हर कोई सोने की तरह तपता है और निखरता है, इस शहर में कभी नारद की तपोभूमि थी आज यह अंचल जन-जन की तपोंभूमि है। यमराज को भी बहन ताप्ती के शहर में आना मना है, इस शहर में लोग ख़ुद से मोक्ष पाने चले आते है, कहते है यहाँ मरने पर स्वर्ग मिलता है।
इस शहर में लोग ३६५ दिन त्योहार मनाते है। यहाँ मेला तो कार्तिक पूर्णिमा से मात्र पंद्रह दिनों के लिए भरता है पर साल भर ख़त्म होने का नाम नहीं लेता। दुःख यहाँ दिखाई नही देता। ताप्ती अंचल के सीधे साधे लोगों के चेहरों पर खिली सरल, सरस और सहज मुस्कान मन को मोह लेती है और दुःख को सोख लेती है। इनसे मिलना प्रयाग में गंगा यमुना के मिलने की तरह असीम आनंददायी होता है। यहाँ समय ही नहीं चलता, यहाँ जीवन भी चलता है। सुख यहाँ किसी मेहमान की तरह टिकता नहीं, लेकिन यह शहर कभी रुकता नहीं। यहाँ मन्दिर हैं, मस्जिद है , गिरिजाघर है,गुरूद्वारे हैं। कहीं पंजाब, तो कहीं गुजरात, कहीं बंगाल तो कहीं महाराष्ट्र,कही राजस्थान तो कहीं मद्रास इस शहर में दिखता है। फैशन के दौर में भी एक धोती या गमछे में ही यह शहर जी लेता है। इतना ही नही, यह शहर श्री सुंदरलाल देशमुख और दादा धर्माधिकारी जैसे विद्वान् भी देता है। यह शहर श्री चंद्रकांत देवताले जैसे साहित्यकार और श्री आचार्य जैसे प्रशासनिक अधिकारी भी देता है। यहाँ का प्रकाश खातरकर अंटार्कटिक हो आता है तो श्री विजय देव और श्री राजुरकर राज राजधानी भोपाल में लोगों के दिलों पर राज करते हैं। सतपुड़ा संस्कृति संस्थान सतपुड़ा की संस्कृति से पुरे देश और दुनिया को परिचित कराता है तो सतपुड़ा आंचलिक साहित्य परिषद् यहाँ की धरोहरों से सम्बंधित जानकारी घर घर पहुंचाने में विश्वास करता है।
यहाँ फटी धोती और सफारी सूट एक ही दुकान पर चाय पीता है। यहाँ लुगड़ा और जीन्स पहनी महिलाएं ताप्ती में स्नान कर साथ साथ मंदिर में पूजा करती हैं। यहाँ पश्चिम और पूरब दोनों एक साथ दर्शन दे जाते हैं।
इस शहर का नाम पूछने पर कोई इसे मुलतापी और कोई मुलताई कहता है लेकिन अपने इस शहर की परिभाषा हर आदमी कुछ यू बताता है..
“माँ ताप्ती की दुहाई है वो शहर हमारा मुलताई है…”
ताप्ती संस्कृति –
ताप्ती वाक है। असत से सत ,तमस से ज्योति ,अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाले मार्ग का निर्देश करती है। ताप्ती काव्य है, इसमें रामायण- सा औदात्य और महाभारत- सा विस्तार है। ताप्ती रसवंती है ,इसमें सहस्त्र -सहस्त्र महाकाव्यों का रस है। ताप्ती कला है। इसके कटान ,ढलान ,उतार- चढाव उसकी कला कृतिया है। ताप्ती गीत है ,लय है ,नाद है। ताप्ती गति ,यति, आरोह -अवरोह है। ताप्ती सृजन धर्मिणी है। वह हर पल ,हर छण ,हर घड़ी ,हर प्रहर ,हर दिन ,हर मास ,हर वर्ष कुछ न कुछ सिरजती रहती है। कभी चट्टानों से कोई अपूर्व आकृति तो कभी कगारों का बाँकपन और कहीं धाराओं की सहस्त्र-सहस्त्र लट। संगीत रचती ताप्ती की कल -कल की ध्वनि और जलप्रपात से गिरते जल की धार की धारदार ध्वनि मन को मोहित करती है। ताप्ती कल्पदा है ,कामरूपा है ,कला विद्या ,काव्य और संगीत की अधिष्ठात्री है।
ताप्ती प्रेयसी है,अथाह रसभरी है। वह आमंत्रित करती है। उसमें उतर जाने को ,खो जाने को और विलीन हो जाने को। ताप्ती धीरा है, प्रशांता है ,मृदु भाषिणी है। वह चिर यौवना है। उसका यौवन और प्रेम मातृत्व में फलिभूत होता है या मुक्ति में। राम ने सरयू की गोद में जन्म लिया ,उससे प्रेम किया और उसी में समाहित हो गए। ताप्ती अंचल का हर राम ताप्ती की गोद में जन्म लेता है ,ताप्ती से प्रेम करता है और अंत में उसी में समाहित हो जाता है। ताप्ती तालाब और ताप्ती किनारे होने वाले उत्तरकर्म इसका प्रमाण है। ताप्ती केवल धरती के भूगोल में ही नहीं बहती ,वह जन -जन के अंतस में भी बहती है। वह अंतःसलिला है। कार्तिक माह में ताप्ती किनारे लगने वाले मेले उसी अंतर्प्रवाह का बाह्य प्रस्फुटन है।
वल्लभ डोंगरे ,सुखवाड़ा ,सतपुड़ा संस्कृति संस्थान ,भोपाल।