Blog

raja-bhoj

22 जन 2018 राजा भोज जयंती पर विशेष –

वे दूसरों की सहायता करते तो लगता मानो लक्ष्मी ही धन की वर्षा कर रही हो,जब वे लिखते तो लगता मानो सरस्वती ही उनकी कलम में उतर आई हों और जब वे युद्ध के मैदान में होते तो लगता मानो दुर्गा ही उनकी तलवार में उतर आई हों।


राजा भोज के चित्र को ध्यान से देखें। माँ वाग्देवी की आराधना में वे लीन हैं। उनके बगल में तलवार लटकी हुई है। कद काठी मजबूत है। शरीर बलिष्ठ है। उनका पूरा व्यक्तित्व ही शिक्षाप्रद है। माँ वाग्देवी की पूजा करना इस बात का प्रतीक है कि हमारी बहन बेटी बहू माँ वाग्देवी स्वरूपा हैं। उनके मान सम्मान की रक्षा करना ही उनकी सच्ची आराधना है। हमारे समाज में पिता बेटी के और भाई बहन के चरण स्पर्श करता है। हमारे घर में लक्ष्मी स्वरूपा लाई जाने वाली बहू के भी ससुर चरण स्पर्श करते हैं। माँ बहन बेटी बहू सरस्वती लक्ष्मी पार्वती स्वरूपा होती हैं। भोज का व्यक्तित्व हमें यही सीख देता है कि जीवन में नारी का सम्मान करने से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है।


राजा भोज के हाथ में जो तलवार है वह कर्म का प्रतीक है।तलवार तत्परता और स्फूर्ति का प्रतीक मानी जाती है। कर्म करके ही जीवन को सार्थकता प्रदान की जा सकती है। 17 बार सोमनाथ को लूटने वाला गजनवी जब बेशर्मी की सारे हदें पार कर जाता है तब राजा भोज को अपनी तलवार निकालना पड़ता है। बहन बेटियों की आबरू की रक्षा के लिए राजा भोज को तलवार उठानी पड़ती है। मुँह ताकना और हाथ पे हाथ धरे बैठना क्षत्रियों को शोभा नहीं देता। भोज यही सीख देते है कि जरुरत पड़ने पर प्राणों की बाजी लगाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।


राजा भोज कर्म प्रधान विश्व करि राखा के प्रबल समर्थक और सटीक उदाहरण थे। उन्होंने 55 वर्ष की आयु में 84 किताबें और 120 काव्य लिखकर तलवार के साथ कलम को भी साध रखा था। राजा होने के कारण उनपर लक्ष्मी की कृपा तो थी ही सरस्वती और दुर्गा की भी उनपर असीम कृपा थी। वे दूसरों की सहायता करते तो लगता मानो लक्ष्मी ही धन की वर्षा कर रही हो,जब वे लिखते तो लगता मानो सरस्वती ही उनकी कलम में उतर आई हों और जब वे युद्ध के मैदान में होते तो लगता मानो दुर्गा ही उनकी तलवार में उतर आई हों।


उनका स्वस्थ और सुन्दर शरीर यही सन्देश देता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन पाया जाता है। मन को मंदिर की संज्ञा दी गई है। स्वस्थ मन होने पर ही स्वस्थ निर्णय लिए जा सकते हैं। जीवन में उन्होंने प्रतिभाओं को सम्मान दिया और अपने दरबार में उनको सदैव ही उच्च स्थान प्रदान किया। उनके दरबार में सदैव उच्च कोटि के विद्वानों की परिचर्चाएं आयोजित हुआ करती थीं। दक्षिण से 400 विद्वानों को अपने दरबार में स्थान देकर उन्होंने यही बताने की कोशिश की कि प्रतिभाओं के सम्मान और उनके सानिध्य में ही जीवन का सच्चा विकास संभव है।

राजा भोज द्वारा 1000 वर्ष पूर्व विज्ञान, तकनीकी,यांत्रिकी, ज्योतिष आदि का इतना विकास कर लिया गया था कि आज का जीवन भी उनके जीवनकाल के समय से काफी पीछे का प्रतीत होता है। उनका विकसित जीवन हमें जीवन में नवीन ज्ञान तकनीकी को यथोचित स्थान देने की सीख देता है।समय के साथ चलने के लिए हमें लीक से हटकर अपने जीवन में आवश्यक सुधार लाने और अपनाने की सीख देता है।

हमें चाहिए कि रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास,कुरीति,मृत्युभोज,दहेज़,बलि प्रथा,चुट्टी आदि आदिम काल से चली आ रही कुरीतियों और परम्पराओं को त्यागकर नवीन को धारण कर अपने स्वस्थ सुखी और सुविकसित जीवन की नींव रखें। राजा भोज जयंती मनाना तभी सार्थक होगा जब हम आडम्बर से बचकर उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का हर संभव प्रयास करेंगें। केवल राजा भोज के चित्र पर माला और पुष्प चढ़ाकर,जय राजा भोज के नारे लगाकर,फेसबुक पर जय राजा भोज लिखकर या एक दिन आयोजन में भीड़ का हिस्सा बनकर भोज जयंती मनाना महज औपचारिकता होगी।

-वल्लभ डोंगरे,सुखवाड़ा, सतपुड़ा संस्कृति संस्थान भोपाल।

raja

pawar matrimonial

जानिए क्षत्रिय पवार समाज के सभी गोत्र एवं बरग (वर्ण – गोत्र के अनुसार) बहुत ही रोचक जानकारी जिनका विवाह समबन्ध बनाने के पूर्व अत्यधिक ध्यान दिया जाता है जानिए हमारे समाज में कितने गोत्र है और हर गोत्र का कौन सा बरग होता है…

main-pawar-gotra

updeshya

समाजसेवा वैयक्तिक आधार पर, समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की एक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति अपनी सहायता स्वयं कर सके। इसके माध्यम से सेवार्थी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न अपनी कतिपय समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम होता है। अत: हम समाजसेवा को एक समर्थकारी प्रक्रिया कह सकते हैं। यह अन्य सभी व्यवसायों से सर्वथा भिन्न होती है, क्योंकि समाज सेवा उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का निरूपण कर उसके परिप्रेक्ष्य में क्रियान्वित होती है, जो व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण-परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रभावित करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों के बाद व्यक्तिगत जैविकीय, भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक तत्वों को गतिशील अंत:क्रिया को दृष्टिगत कर ही सेवार्थी की सेवा प्रदान करता है। वह सेवार्थी के जीवन के प्रत्येक पहलू तथा उसके पर्यावरण में क्रियाशील, प्रत्येक सामाजिक स्थिति से अवगत रहता है क्योंकि सेवा प्रदान करने की योजना बताते समय वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

समाजसेवा का उद्देश्य व्यक्तियों, समूहों और समुदायों का अधिकतम हितसाधन होता है। अत: सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को उसकी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम बनाने के साथ उसके पर्यावरण में अपेक्षित सुधार लाने का प्रयास करता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त सेवार्थी की क्षमता तथा पर्यावरण की रचनात्मक शक्तियों का प्रयोग करता है। समाजसेवा सेवार्थी तथा उसके पर्यावरण के हितों में सामजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है। समाजसेवा का वर्तमान स्वरूप निम्नलिखित जनतांत्रिक मूल्यों के आधार पर निर्मित हुआ है :

(1) व्यक्ति की अंतनिर्हित क्षमता, समग्रता एवं गरिमा में विश्वास-समाजसेवा सेवार्थी की परिवर्तन और प्रगति की क्षमता में विश्वास करती है।

(2) स्वनिर्णय का अधिकार – सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को अपनी आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति की योजना के निर्धारण की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। निस्संदेह कार्यकर्ता सेवार्थी को स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सहायता करता है जिससे वह वास्तविकता को स्वीकार कर लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में उन्मुख हो।

(3) अवसर की समानता में विश्वास – समाज सेवा सबको समान रूप से उपलब्ध रहती है और सभी प्रकार के पक्षपातों और पूर्वाग्रहों से मुक्त कार्यकर्तासमूह अथवा समुदाय के सभी सदस्यों को उनकी क्षमता और आवश्यकता के अनुरूप सहायता प्रदान करता है।

(4) व्यक्तिगत अधिकारों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों में अंतस्तंबद्क्त व्यक्ति के स्वनिर्णय एवं समान अवसरप्राप्ति के अधिकार, उसके परिवार, समूह एवं समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्व से संबंद्ध होते हैं। अत: सामाजिक कार्यकर्ता व्यक्ति की अभिवृत्तियों एवं समूह तथा समुदाय के सदस्यों की अंत:क्रियाओं, व्यवहारों तथा उनके लक्ष्यों के निर्धारण को इस प्रकार निदेशित करता है कि उनके हित के साथ उनके बृहद् समाज का भी हितसाधन हो।

समाजसेवा इस प्रयोजन के निमित्त स्थापित विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से वहाँ नियुक्त प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदान की जाती है। कार्यकर्ताओं का ज्ञान, अनुभव, व्यक्तिगत कुशलता एक सेवा करने की उनकी मनोवृत्ति सेवा के स्तर की निर्धारक होती है। कार्यकर्ता में व्यक्तिविकास की संपूर्ण प्रक्रिया एवं मानव व्यवहार तथा समूह व्यवहार की गतिशीलता तथा उनके निर्धारक तत्वों का सम्यक्‌ ज्ञान समाजसेवा की प्रथम अनिवार्यता है। इस प्रकार ज्ञान पर आधारित समाजसेवा व्यक्ति की समूहों अथवा समुदाय की सहज योग्यताओं तथा सर्जनात्मक शक्तियों को उन्मुक्त एवं विकसित कर स्वनिर्धारित लक्ष्य की दिशा में क्रियाशील बनती है, जिससे वे अपनी संवेगात्मक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूँढने में स्वयं सक्रिय रूप से प्रवृत्त होते हैं। सेवार्थी अपनी दुर्बलताओं-कुंठा, नैराश्य, हीनता, असहायता एवं असंपृक्तता की भावग्रंथियों और मानसिक तनाव, द्वंद्व तथा विद्वेषजनित आक्रमणात्मक मनोवृत्तियों का परित्याग कर कार्यकर्ता के साथ किस सीमा तक सहयोग करता है, यह कार्यकर्ता और सेवार्थ के मध्य स्थापित संबंध पर निर्भर करता है। यदि सेवाथीं समूह या समुदाय है तो लक्ष्यप्राप्ति में उसके सदस्यों के मध्य वर्तमान संबंध का विशेष महत्व होता है। समाजसेवा में संबंध ही संपूर्ण सहायता का आधार है और यह व्यावसायिक संबंध सदैव साभिप्रय होता है। प्रकार

समाजसेवा के तीन प्रकार होते हैं-

(1) वैयक्तिक समाजसेवा – इस प्रक्रिया के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सहायता वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न उसकी कतिपय समस्याओं के समाधान के लिए करता है जिसमें वह समाज द्वारा स्वीकार्य संतोषपूर्ण जीवन व्यतीत कर सके।

(2) सामूहिक समाजसेवा – एक विधि है जिसके माध्यम से किसी सामाजिक समूह के सदस्यों की सहायता एक कार्यकर्ता द्वारा की जाती है, जो समूह के कार्यक्रमों और उसके सदस्यों की अंत:क्रियाओं को निर्देशित करता है। जिससे वे व्यक्ति की प्रगति एवं समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान कर सकें।

(3) सामुदायिक संगठन – वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक संगठनकर्ता की सहायता से एक समुदाय के सदस्य को समुदाय और लक्ष्यों से अवगत होकर, उपलब्ध साधनों द्वारा उनकी पूर्ति आवश्यताओं के निमित्त सामूहिक एवं संगठित प्रयास करते हैं।

इस प्रकार समस्त सेवा की तीनों विधियों का लक्ष्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति है। उनकी सहायता इस प्रकार की जाती है कि वे अपनी आवश्यकताओं, व्यक्तिगत क्षमता तथा प्राप्य साधनों से भली-भाँति अवगत होकर प्रगति कर सके तथा स्वस्थ समाज व्यवस्था के निर्माण में सहायक हों।

pawar matrimonial

परमार / पवार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार /पवार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की। ‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

pawar matrimonial

परमार / पवार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार /पवार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की। ‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

भोजशाला मूल रूप से एक मा सरस्वती मंदिर के तौर पर स्थापित था, जिसे राजा भोज ने बनवाया था। लेकिन जब अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना तो यह क्षेत्र उसके साम्राज्य में मिल गया। उसने इस मंदिर को मस्जिद में तब्दील करवा दिया। भोजशाला मस्जिद में संस्कृत में अनेक अभिलेख खुदे हुए हैं जो इसके इसके मंदिर होने की पुष्टि करते हैं। हाल ही में 15 फरवरी 2013 को यहां आंदोलन हुआ है। इसमें 97 लोग पुलिस की लाठीचार्ज से घायल है। मां वाग्देफवी की प्रतिमा भारत लाने के लिए लंदन की कोर्ट में सुब्रमण्य म स्वाामी ने एक याचिका दायर की है।

ऐतिहासिक भोजशाला में प्रतिवर्ष बासंती वातावरण में बसंत पंचमी पर सरस्वती के आराधकों का मेला लगता है। दरअसल यह ऐसा स्थान है, जहाँ माँ सरस्वती की विशेष रूप से इस दिन पूजा-अर्चना होती है। यहाँ यज्ञ वेदी में आहुति और अन्य अनुष्ठान इस स्थल के पुराने समय के वैभव का स्मरण कराते हैं। साथ ही इतिहास भी जीवंत हो उठता है। परमार काल का वास्तु शिल्प का यह अनुपम प्रतीक है।

ग्रंथों के अनुसार राजा भोज माँ सरस्वती के उपासक थे। उनके काल में सरस्वती की आराधना का विशेष महत्व था। ऐसा कहा जाता है कि उनके काल में जनसाधारण तक संस्कृत का विद्वान हुआ करता था। इसलिए धार संस्कृत और संस्कृति का महत्वपूर्ण केंद्र रहा। भोज सरस्वती की कृपा से ही योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वास्तुशास्त्र, राज-व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों के ज्ञाता रहे।

उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ आज भी प्रासंगिक हैं। इतिहास के पन्नों में यह बात दर्ज है कि परमार/पँवार/पवार वंश के सबसे महान अधिपति राजा भोज का धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक प्रभाव रहा, जिससे कि यहाँ की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँची। राजा भोज के विद्वानों के आश्रयदाता थे। उन्होंने धार में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जो बाद में भोजशाला के नाम से विख्यात हुई।

जहाँ सुंदर तथा निकट स्थानों से विद्यार्थी अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने के लिए आते थे। उस काल के साहित्य में इस नगर का उल्लेख धार तथा उसके शासक का यशोगान ही किया गया है।

राजा भोज के काल में सरस्वती की आराधना का विशेष महत्व था। जनसाधारण तक संस्कृत का विद्वान हुआ करता था। भोज सरस्वती की कृपा से ही योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वास्तुशास्त्र, राज-व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों के ज्ञाता रहे।

स्थापत्य व वास्तु शिल्प -भोजशाला एक बड़े खुले प्रांगण में बनी है तथा सामने एक मुख्य मंडल और पार्श्व में स्तंभों की श्रंखला तथा पीछे की ओर एक विशाल प्रार्थना घर है। नक्काशीदार स्तंभ तथा प्रार्थना गृह की उत्कृष्ट नक्काशीदार छत भोजशाला की विशिष्ट पहचान है। दीवारों में लगे उत्कीर्णित शिला पट्टों से बहुमूल्य कृतियाँ प्राप्त हुई हैं। वास्तु के लिए बेजोड़ इस स्थान पर दो शिलालेख विशाल काले पत्थर के हैं। इन शिलालेखों पर क्लासिकी संस्कृत में नाटक उत्कीर्णित है। इसे अर्जुन वर्मा देव के शासनकाल में उत्कीर्णित किया गया था।

इस काव्यबद्घ नाटक की रचना राजगुरु मदन द्वारा की गई थी। जो विख्यात जैन विद्वान आशाधर का शिष्य था, जिन्होंने परमारों के राज दरबार को सुशोभित किया था और मदन को संस्कृत काव्य शिक्षा दी थी। इस नाटक का नायक पूर्रमंजरी है। यह धार के बसंतोत्सव में अभिनीत किए जाने के लिए लिखा गया था। भोजशाला में स्तंभों पर धातु प्रत्यय माला व वर्णमाला अंकित है। स्थापत्य कला के लिहाज से भोजशाला एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है

वाग्देवी का मंदिर

यहाँ पर कभी माँ सरस्वती यानी वाग्देवी का मंदिर था। जिसका कवि मदन ने अपने नाटक में उल्लेख किया है। यह प्रतिमा भव्य व विशाल थी। यहाँ की देवी प्रतिमा अंग्रेज अपने साथ लंदन ले गए, जो आज भी लंदन के संग्रहालय में मौजूद है। इस प्रतिमा की राजा भोज द्वारा आराधना की जाती थी। वर्ष में केवल एक बार बसंत पंचमी पर भोजशाला में माँ सरस्वती का तैलचित्र ले जाया जाता है, जिसकी आराधना होती है। बसंत पंचमी पर कई वर्षों से उत्सव आयोजित हो रहे हैं। इसके लिए एक समिति गठित है। मां वाग्देहवी की प्रतिमा भारत लाने के लिए लंदन की कोर्ट में सुब्रमण्यिम स्वाकमी ने एक याचिका दायर की है।

ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ मंदिर का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुन: निर्माण कराया था। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं तब भी यह मंदिर मौजूद था।

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था। कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले भोजपाल कहा जाता था।

भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं। उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम्, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं।

राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती के मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठभरण नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में ‘सरस्वती मंदिर’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम ‘भोजशाला’ लिखा था। पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी। मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है।

केदारनाथ मंदिर का निर्माण

केदारनाथ मंदिर का परिचय और इतिहास :- उत्तराखंड में स्थित बारह ज्योतिर्लिंग में से एक केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति और मंदिर के निर्माण को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस मंदिर को सर्वप्रथम किसने बनाया इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन ज्ञात इतिहास अनुसार 3500 ईसापूर्व पांडवों ने इसका निर्माण किया, फिर 8वीं सदी में शंकराचार्य ने और बाद में 10वीं सदी के मध्य में इसका पुन:निर्माण कराया मालवा के राजा भोज ने।

गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच ‍नदियों का संगम भी है यहां- मं‍दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है। इसी के किनारे है केदारेश्वर धाम। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी रहता है।

यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है।

मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं।

85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल ‍दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।

मंदिर का निर्माण इतिहास : पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है।

यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था, लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था।

chadravanshi

परमार / पवार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार /पवार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की। ‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

गोत्र प्रमुख शाखा कुलदेवी कुलदेवता वेद प्रमुख निवास क्षत्रिय
सोमवंशी अत्री सोमवंशी चंद्रवंशी महालक्ष्म श्रीराम यजुर्वेद उत्तरप्रदेश बिहार पंजाब
यदुवंशी कौदिढय यदु ,यदुवंशी जादौन जडेजा योगेश्वरी श्रीकृष्णा राजस्थान कच्छ मथुरा मैसूर
तोमर गर्ग तंवर तोमर सोपवाल तुन्ग्पाल पैल्वर वैरुयर शिव मध्यभारत चम्बल गाजीपुर
कलचुरी कश्यप कलचुरी कर्चोलिया विन्ध्यावासनी विष्णु बुंदेलखंड बघेलखंड राजस्थान मध्यभारत
गहरवार गहरवार बुंदेल अन्नपूर्णा शिव सामवेद
भरद्वाज भारद्वाज> कथ दोनवार हरद्वार शारदा विष्णु उत्तरप्रदेश पंजाब
जनवार कौशिक चंडिका बलराम गोंडा बहराइच
चंदेल पराशर महालक्ष्मी शिव उत्तरप्रदेश बिहार
सेंगर गौतम विन्ध्यावासनी मध्यभारत उत्तरप्रदेश
हैहो कृष्णा त्रय दुर्गा उत्तरप्रदेश

suryavanshi

परमार / पवार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार /पवार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की। ‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

गोत्र प्रमुख शाखा कुलदेवी कुलदेवता वेद प्रमुख निवास क्षत्रिय
सोमवंशी गहलोत कछ्वास कुशवाहा राठौर गौतम गौतम सिसोदिया चंद्रावत चुडावत रानावत शक्तावत शेखावत जगावत मालावत बाकावत गोहिल तलचिर नंदवक जोतीयाना जयसिंहां राव रावत कंडवार चंडिका पंखिनी दुर्गा एकलिंग विष्णु श्रीराम सामवेद जयपुर मेवाड आमेठी जम्मू लाहौर अवध ग्वालियर
निकुंज रघुवंशी बडगुजर वशिष्ठ श्रीनेत कटहरिया कालिक श्रीराम यजुर्वेद बलिया जोनपुर गौरखपुर आजमगढ़ राजस्थान बिहार
दीक्षित कश्यप छत्रवंशी  बसखेरिया किनवाट नेतवानी दुर्गा श्रीराम सामवेद पाटन उत्तरप्रदेश
गौंड़ भारद्वाज गौर भारद्वाज गौंडाहर बामनगौंडा भटगौंड़ ऋग्वेद यजुर्वेद राजस्थान अबध बिहार
रैकवार रैकवार सिकरवार विष्णु सामवेद ग्वालियर फतेहपुर
वैस त्रिलोक्चंदी कुम्भी नखरिया कलिका शिव यजुर्वेद उत्तरप्रदेश वैसवाडा राजस्थान
विश्येन पाराशर विश्येन दुर्गा शिव सामवेद गौरखपुर गोंडा बहराइच

pawar matrimonial

परमार / पवार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार /पवार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की। ‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

गोत्र प्रमुख शाखा कुलदेवी कुलदेवता वेद प्रमुख निवास क्षत्रिय
प्रमर वशिष्ठ प्रमर प्रमार परमार इनकी ३५ शाखाए;उज्जैनीय नलहर भोजपुरिया उम्मत मेपती चंदेलिया मोरी सोडा सांकल खेर टुंडा बेहिल बल्हार काबा रेन्हवर सोर्तिया हरेल खेजुर सुगडा बरकोटा पुनीसंबल भीबा कल्पुसर कलमोह कोहिला पुष्या कहोरिया धुन्दा देवास बहरहर जिप्रा सोपरा धुन्ता टीकुम्बा टीका भोयर पवार दुर्गा या काली शिव या महाकाल सामवेद आबू मालवा उज्जैन धार उत्तरप्रदेश बिहार बेन्गंगा बर्धा बेतुल खानदेश गुजरात राजस्थान पंजाब छतीसगढ़ आन्ध्र चंद्रपुर मैसूर
चौहान वत्स २४ शाखाए प्रमुख –हाडा रवीदी भदोरिया नीमराण देवड़ा दोगाई वरमाया आशापुरी विष्णु यजुर्वेद बंगाल को छोड़कर सारे भारत में
परिहार कश्यप १७ शाखाए प्रमुख चंद्रावत तुरावत केसावत सुरवाणा पडीहांडा चामुण्डा ऋग्वेद उत्तरप्रदेश राजस्थान बिहार गुजरात
सोलंकी या चालुक्य भारद्वाज १६ शाखाए प्रमुख बघेल सोसके सिखरिया रालका विष्णु अथर्ववेद राजस्थान उत्तरप्रदेश बिहार गुजरात मध्यप्रदेश

WE ARE AN ENTREPRENEUR OF "I-DIGIT SOFTWARE" OUR VISION IS TO HELP PAWAR MEMBERS TO FIND THEIR LIFE PARTNER...

786 satta king