क्षत्रिय वह है, जो ज्ञान से परिपूर्ण हो और पीठ पर शस्त्र हो।
क्षत्रिय दोहरा धर्म निभाते हैं। वे अपनी तो रक्षा करते ही हैं दूसरों की रक्षा की
भी जिम्मेदारी निभाते हैं।
क्षत्रिय संगत पर जोर देते हुए कहा कि जैसी संगत होगी वैसे ही
आचार-विचार होंगे। हमें ऎसे व्यक्ति की संगत करनी चाहिए जो आदर्श हो। सही दिशा बतानेवाला हो।
क्षत्रिय समाज के लोगों से अहंकार से दूर हटकर सभी को साथ लेकर चलने पर जोर दिया। समाज के हर
व्यक्ति को सुनना चाहिए भले ही वह गरीब क्यों न हो। क्षत्रियों का
धर्म गायों को रक्षा करना भी रहा है।
हममें क्षमता और शक्ति खून और संस्कार से मिलती है। उन्होंने
क्षत्रियों को देश का सैनिक बताते हुए की , हम क्षत्रिय हैं हमें अपने दिमाग की
तलवार का इस्तेमाल उचित जगह करने की जरूरत है। स्वाभिमान ही क्षत्रिय की पहचान है।
क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से अर्थ है जो दूसरों को क्षत से बचाये। क्षत्रिया, क्षत्राणी हिन्दुओं के चार वर्णों में से दूसरा वर्ण है। इस वर्ण के लोगों का काम देश का शासन और शत्रुओं से उसकी रक्षा करना माना गया है। भारतीय आर्यों में अत्यंत आरम्भिक काल से वर्ण व्यवस्था मिलती है, जिसके अनुसार समाज में उनको दूसरा स्थान प्राप्त था। उनका कार्य युद्ध करना तथा प्रजा की रक्षा करना था। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार क्षत्रियों की गणना ब्राहमणों के बाद की जाती थी, परंतु बौद्ध ग्रंथों के अनुसार चार वर्णों में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से ऊँचा अर्थात् समाज में सर्वोपरि स्थान प्राप्त था। गौतम बुद्ध और महावीर दोनों क्षत्रिय थे और इससे इस स्थापना को बल मिलता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जहाँ एक ओर समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के दावे के प्रति क्षत्रियों के विरोध भाव को प्रकट करते हैं, वहीं दूसरी ओर पृथक् जीवन दर्शन के लिए उनकी आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति देते हैं। क्षत्रियों का स्थान निश्चित रूप से चारों वर्णों में ब्राह्मणों के बाद दूसरा माना जाता था।